संत रविदास जी आत्मकथा


" संत रविदास जी का जन्म काशी ( वाराणसी) शहर सन् *1398 में हुआ "

 माता कालका देवी, पिता बाबा संतोष दास, पुत्र विजय दास  वाराणसी काशी शहर उत्तर प्रदेश "

भारत

मृत्यु 1540 स्थान वाराणसी


"संत रविदास जी कलयुग प्रथम चरण समकालीन सन् 1398 साहिब कबीर के शिष्य भी हुए, जिसका प्रमाण " कबीर सागर ग्रंथ" में भी प्रमाणित है"

१- " संत रविदास जी एक उच्च कोटि के संत हुए 

२- वह प्रभु की भक्ति करते थे वह अन्य को भी बताते थे, 

३- प्रमाण शास्त्र कबीर सागर में भी मिला है उन्होंने जो सत्य साधना की।

 कृपया उससे पूरा पढ़ें "

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 छठवां वेद कबीर सागर ग्रंथ है - दोहों, चौपाइयों, लोकोक्तियों, मुहावरा , बीजक शब्दावली का ग्रंथ है, जिसमें सर्व ब्रह्मांड, सर्व महात्मा ,देवताओं की उत्पत्ति का उल्लेख दिया गया है।


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‘‘रविदास जी ने सात सौ रूप बनाए’’

एक ब्राह्मण सुविचार वाला ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ भक्ति कर रहा था। घर
त्यागकर किसी ऋषि के आश्रम में रहता था। सुबह के समय काशी शहर के पास से बह रही
गंगा दरिया में स्नान करके वृक्ष के नीचे बैठा परमात्मा का चिंतन कर रहा था। उसी समय
एक 15.16 वर्ष की लड़की अपनी माता जी के साथ जंगल में पशुओं का चारा लेकर शहर
की ओर जा रही थी। उसी वृक्ष के नीचे दूसरी ओर छाया देखकर माँ-बेटी ने चारे की गाँठ
(गठड़ी) जमीन पर रखी और सुस्ताने लगी। साधक ब्राह्मण की दृष्टि युवती पर पड़ी तो
सूक्ष्म मनोरथ उठा कि कितनी सुंदर लड़की है। पत्नी होती तो कैसा होता। उसी क्षण विद्वान
ब्राह्मण को अध्यात्म ज्ञान से अपनी साधना की हानि का ज्ञान हुआ कि:-
जेती नारी देखियाँ मन दोष उपाय। ताक दोष भी लगत है जैसे भोग कमाय।।
अर्थात् मन में मिलन करने के दोष से जितनी भी स्त्रिायों को देखा, उतनी ही स्त्रिायों
के साथ सूक्ष्म मिलन का पाप लग जाता है। अध्यात्म में यह भी प्रावधान है कि मन में
मलीनता आ ही जाती है, परंतु उसे तुरंत सुविचारांे से समाप्त किया जा सकता है। एक
युवक साईकिल से अपने गाँव आ रहा था। वह पड़ौस के गाँव में गया था। उसने दूर से
देखा कि तीन लड़कियाँ सिर पर पशुओं का चारा लिए उसी गाँव की जा रही थी। वह उनके



पीछे साईकिल से आ रहा था। उसने उनमें से एक लड़की उन तीनों में अधिक आकर्षक
लग रही थी। पीठ की ओर से लड़कियों को देख रहा था। उस एक लड़की के प्रति जवानी
वाला दोष विशेष उत्पन्न था। उसी दोष दृष्टि से उसने उन लड़कियों से आगे साईकिल
निकालकर उस लड़की का मुख देखने के लिए पीछे देखा तो वह उसकी सगी बहन थी।
उसे देखते ही सुविचार आया। कुविचार ऐसे चला गया जैसे सोचा ही नहीं था। उस युवक
को आत्मग्लानी हुई और सुविचार इतना गहरा बना कि कुविचार समूल नष्ट हो गया।
उस नेक ब्रह्मचारी ब्राह्मण को पता था कि कुविचार के पाप


ने कहा कि यह कंगन परम भक्त रविदास जी को देना। कहना कि आपने मुझ गंगा को
कृतार्थ कर दिया अपने हाथ से प्रसाद देकर।
 मैं संत को क्या भेंट दे सकती हूँ? यह तुच्छ
भेंट स्वीकार करना।
पंडित जी उस कंगन को लेकर चल पड़ा। पंडित जी के मन में लालच हुआ कि यह
कंगन राजा को दूँगा। राजा इसके बदले में मुझे बहुत धन देगा। वह कंगन पंडित जी ने
राजा को दिया जो अद्भुत कंगन था। पंडित जी को बहुत-सा धन देकर विदा किया और
उसका नाम, पता नोट किया। राजा ने वह कंगन रानी को दिया। रानी ने कंगन देखा तो
अच्छा लगा। ऐसा कंगन कभी देखा ही नहीं था। रानी ने कहा कि एक कंगन ऐसा ही ओर
चाहिए। जोड़ा होना चाहिए। राजा ने उसी पंडित को बुलाया और कहा कि जैसा कंगन पहले
लाया था, वैसा ही एक और लाकर दे। जो धन कहेगा, वही दूँगा। यदि नहीं लाया तो
सपरिवार मौत के घाट उतारा जाएगा। उस धोखेबाज  के सामने पहाड़ जैसी समस्या
खड़ी हो गई। सब सुनारों (शर्राफों) के पास फिरकर अंत में परम भक्त रविदास जी के पास
आया। अपनी गलती स्वीकार की। सर्व घटना गंगा को कौड़ी देना, बदले में कंगन लेना,
उस कंगन को भक्त रविदास जी को न देकर मुसीबत मोल लेना आदि बताई। पंडित जी
ने गिड़गिड़ाकर रविदास जी से अपने परिवार के जीवन की भिक्षा माँगी। रविदास जी ने
कहा कि पंडित जी! आप क्षमा के योग्य नहीं हैं, परंतु परिवार पर आपत्ति आई है। इसलिए
आपकी सहायता करता हूँ। आप इस पानी की कठौती (मिट्टी का बड़ा टब जिसमें चमड़ा
भिगोया जाता था) में हाथ डाल और गंगा से यह कह कि भक्त रविदास जी की प्रार्थना है
कि आप कठौती में आएँ और एक कंगन वैसा ही दें। ऐसा कहकर पंडित जी ने जो रविदास
के चमार होने के कारण पाँच फुट दूर से बातें करता था, अब उस चाम भिगोने वाले कुंड
(टब) में हाथ देकर देखा तो हाथ में चार कंगन वैसे ही आए। भक्त रविदास जी ने कहा
कि पंडित जी! एक ले जाना, शेष गंगा जी को लौटा दे, नहीं तो भयंकर आपत्ति और आ
जाएगी। ब्राह्मण ने तुरंत तीन कंगन वापिस कुण्ड में डाल दिए और एक कंगन लेकर राजा
को दिया। रानी ने पूछा कि यह कंगन कहाँ से लाए हो, मुझे बता।
 ब्राह्मण ने संत रविदास
जी का पता बताया।
रानी ने सोचा कि कोई स्वर्णकार होगा और



जी ने कहा कि बहन जी! आपके पास भौतिक धन तो पर्याप्त है। यह आपके पूर्व जन्म के
पुण्यों का फल है। भविष्य में भी सुख प्राप्ति के लिए आपको वर्तमान में पुण्य करने पड़ेंगे।
आध्यात्म धन संग्रह करो। रानी ने कहा कि संत जी! मैं बहुत दान-धर्म करती हूँ। महीने में
पूर्णमासी को भण्डारा करती हूँ। काशी तथा आसपास के ब्राह्मणों तथा संतों को भोजन कराती
हूँ। संत रविदास जी ने कहा:-
बिन गुरू भजन दान बिरथ हैं, ज्यूं लूटा चोर। 
न मुक्ति न लाभ संसारी, कह समझाऊँ तोर।।
कबीर, गुरू बिन माला फेरते, गुरू बिन देते दान।
 गुरू बिन दोनों निष्फल हैं, चाहे पूछो बेद पुरान।।

रानी ने कहा कि हे संत जी! मैंने एक ब्राह्मण गुरू बनाया है। रविदास जी ने कहा कि
नकली गुरू से भी कुछ लाभ नहीं होना। आप जी ने गुरू भी बना रखा था और कष्ट यथावत
थे। क्या लाभ ऐसे गुरू से? रानी ने कहा कि आप सत्य कहते हैं। आप मुझे शिष्या बना लो।
रविदास जी ने रानी को प्रथम मंत्रा दिया। रानी ने कहा कि गुरूजी! अबकी पूर्णमासी को
आपके नाम से भोजन-भण्डारा करूंगी। आप जी मेरे घर पर आना। निश्चित तिथि
को रविदास जी राजा के घर पहुँचे। पूर्व में आमंत्रित सात सौ ब्राह्मण भी भोजन-भण्डारे में
पहुँचे। भण्डारा शुरू हुआ। रानी ने अपने गुरू रविदास जी को अच्छे आसन पर बैठा रखा
था। उसके साथ सात सौ ब्राह्मणों को भोजन के लिए पंक्ति में बैठने के लिए निवेदन किया।
ब्राह्मण कई पंक्तियों में बैठे थे। भोजन सामने रख दिया गया था। उसी समय ब्राह्मणों ने
देखा कि रविदास जी अछूत जाति वाले साथ में बैठे हैं। सब उठ गए और कहने लगे कि
हम भोजन नहीं करेंगे। यह अछूत रविदास जो बैठा है, इसे दूर करो। रानी ने कहा कि यह
मेरे गुरू जी हैं, ये दूर नहीं होंगे।
संत रविदास जी ने रानी से कहा कि बेटी! आप मेरी बात मानो। मैं दूर बैठता हूँ।
रविदास जी उठकर ब्राह्मणों ने जहाँ जूती निकाल रखी थी, उनके पीछे बैठ गए। पंडितजन
भोजन करने बैठ गए। उसी समय रविदास जी के सात सौ रूप बने और प्रत्येक ब्राह्मण के
साथ थाली में खाना खाते दिखाई दिए। एक ब्राह्मण दूसरे को कहता है कि आपके साथ एक
शुद्र रविदास भोजन कर रहा है, छोड़ दे इस भोजन को। सामने वाला कहता है कि आपके
साथ भी भोजन खा रहा है। इस प्रकार प्रत्येक के साथ रविदास जी भोजन खाते दिखाई
दिए। रविदास जी दूर बैठे कहने लगे कि हे ब्राह्मणगण! मुझे क्यों बदनाम करते हो, देखो!
मैं तो यहाँ बैठा हूँ। इस लीला को राजा, रानी, मंत्राी सब उपस्थित गणमान्य व्यक्ति भी देख
रहे थे। तब रविदास जी ने कहा कि ब्राह्मण कर्म से होता है, जाति से नहीं। अपने शरीर
के अंदर (खाल के भीतर) स्वर्ण (ळवसक) का जनेऊ दिखाया। कहा कि मैं वास्तव में ब्राह्मण
हूँ। मैं जन्म से ब्राह्मण हूँ। कुछ देर सत्संग सुनाया। उस समय सात सौ ब्राह्मणों ने अपने
नकली जनेऊ (कच्चे धागे की डोर जो गले में तथा काख के नीचे से दूसरे कंधे पर बाँधी
होती है) तोड़कर फैंक दी तथा संत रविदास जी के शिष्य हुए।
 सत्य साधना करके अपना
कल्याण करवाया। सात सौ ब्राह्मणों द्वारा उतारे गए जनेऊओं का सूत सवा मन (50
किलोग्राम) तोल हुआ था।
" जग जौनार "

भोजन-भण्डारा यानि धर्मयज्ञ। चोले = शरीर, धरे = धारण किए। गौड = ब्राह्मण। एक
रविदास, उसके साथ एक गौड भोजन करते समय बैठे दिखाई दिए। रैदास = रविदास,
रंगीला रंग = भक्ति रंग में मस्त भक्त। ब्राह्मणों ने (दिए जनेऊ तोड़) अपने-अपने जनेऊ
तोड़ डाले और रविदास जी से सत्य साधना की दीक्षा लेकर मोक्ष पाया।
 
मांझी मर्द कबीर है, जगत करै उपहास। 
कैसौ बनजारा भया, भक्त बढ़ाया दास।।




https://youtu.be/5AtHeWTXe7U

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