"कबीर जी द्वारा निर्वाण दिवस कैसे प्रारंभ हुआ ।। जीवन शैली कबीर जी कलयुग प्रथम से "
कबीर जी का एक ही नारा है।
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जीव हमारी जाती है मानव धर्म हमारा।
हिन्दू मुस्लिम सिख्ख ईसाई धर्म नही कोई न्यारा।।
"कबीर जी जीवन को राह दिखाया सभी लोगों तक "
उत्तर प्रदेश काशी बनारस से चलकर गोरखपुर मगहर क्षेत्र में आकर अपनी स्वयं की लीला की
फोटों देखें।
कबीर जी सभी प्रकार की जो शास्त्र विधि त्यागकर मनमाना आचरण करते हैं उन पूजा साधना को बंद किया,
हिंदू मुसलमान सिख ईसाई में आपस भाईचारा प्रेम किया और सभी को शिक्षा का पाठ पढ़ाया,
भारतवर्ष देश में उत्तर प्रदेश राज्य काशी बनारस में कबीर जी प्रकट हुए जिनकी जीवनी इस प्रकार से है।
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आज से लगभग 5000 वर्ष पहले कोई धर्म संप्रदाय नहीं था सिर्फ 1 ही धर्म था मानव।
जैसे-जैसे सृष्टि में लोगों का संसार में अधिक जन्म लेना प्रकट हुआ और आगे जनसंख्या का रूप लेने लगा तब इसके कुछ दिनों बाद में कॉल ब्रह्मा की दृष्टि की शक्ति से हिंदू मुस्लिम सिख इसाई धर्मों का रूप लिया और इसमें अन्य धर्म भी शामिल हो गए फिर जाति का रूप लिया इस प्रकार से मनुष्य के नाम धर्म संप्रदाय बटने लगा।
फिर सच्चे भगवान का चार युग में कमल के फूल पर आना प्रकट हुआ और सत्य ज्ञान का प्रचार करना शुरू किया लोगों ने शिशु रूप में प्रभु आए तो कुछ लोगों ने विरोध किया कुछ लोगों ने ज्ञान को स्वीकार किया,
इस प्रकार सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग, कलयुग बनाए गए समय की आधार सीमा से सब कुछ आगे होने लगा।
जब पूर्ण प्रभु इस संसार में आते तो कमल के फूल पर प्रकट होते हैं और उनको निसंतान दंपति उठाकर अपने घर ले जाते पालन पोषण कर बड़ा करते तब प्रभु के द्वारा कबीर वाणी प्रकट होती जिसे साखी दोहे मुहावरे लोक्तियां के ज्ञान द्वारा जाना जाता है।
"अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए हमारे दिए तथ्य को पूरा पढें"
‘‘कबीर परमेश्वर जी का कलयुग में अवतरण’’
परमेश्वर कबीर जी के विषय में दन्त कथा प्रचलित है कि उनका जन्म
विधवा स्त्राी के गर्भ से महर्षि रामानन्द जी के आशीर्वाद से हुआ था। यह पूर्णतया
निराधार है। कृपया पढ़िए कबीर देव जी का यथार्थ संक्षिप्त परिचय।
बन्दी छोड़ कबीर परमेश्वर जी ने द्वापर युग में अपने प्रिय शिष्य सुदर्शन
बाल्मीकि जी को शरण में लिया था। उस समय कबीर जी नामान्तर करके
करूणामय नाम से लीला कर रहे थे। भक्त सुदर्शन जी के माता-पिता ने
परमेश्वर कबीर जी के ज्ञान को स्वीकार नहीं किया था जिनके नाम थे पिता जी
का नाम ‘‘भीखू राम’’ तथा माता जी का नाम ‘‘सुखवन्ती’’। जिस समय दोनों
(माता तथा पिता) शरीर त्याग गए तो भक्त सुदर्शन जी अत्यन्त व्याकुल रहने
लगे। भक्ति भी कम करते थे। अन्र्तयामी करूणामय जी (द्वापर युग में कबीर
परमेश्वर करूणामय नाम से लीला कर रहे थे) ने अपने भक्त के मन की बात
जान कर पूछा हे भक्त सुदर्शन! आप को कौन सी चिन्ता सता रही है। क्या
माता-पिता का वियोग सता रहा है? या कोई अन्य पारिवारिक परेशानी है?
मुझे बताईए।
भक्त सुदर्शन जी ने कहा हे बन्दी छोड़! हे अन्तर्यामी! आप सर्वज्ञ हैं आप
बाहर-भीतर की सर्व स्थिति से परिचित है। हे प्रभु! मुझे मेरे माता-पिता के निधन
का दुःख नहीं है क्योंकि वे बहुत वृद्ध हो चुके थे। आप ने बताया है कि यह पाँच
तत्व का पूतला एक दिन नष्ट होना है। मुझे चिन्ता सता रही है कि मेरे
माता-पिता अत्यन्त पुण्यात्मा, दयालु तथा धर्मात्मा थे। उन्होंने अपनी भक्ति
लोकवेद अनुसार की थी। जो शास्त्राविधि के विरूद्ध थी। जिस कारण से उनका
मानव जीवन व्यर्थ गया। अब पता नहीं किस प्राणी की योनी में कष्ट उठा रहे
होंगे? आपका दास आप से नम्र निवेदन करता है कि कभी मेरे माता-पिता मानव
शरीर प्राप्त करें तो उन्हें अपनी शरण में लेना परमेश्वर तथा उन्हें भी भवसागर
से (काल ब्रह्म के लोक से) पार करना मेरे दाता ! मुझे यही चिन्ता सता रही है।
परमेश्वर कबीर जी ने सोचा कि यह भोला भक्त सुदर्शन माता-पिता के मोह में
फंस कर काल जाल में ही रहेगा। काल ब्रह्म ने मोह रूपी पाश बहुत दृढ़ बना
रखा है। यह विचार कर परमेश्वर कबीर जी ने कहा हे भक्त सुदर्शन ! आप
चिन्ता मत करो मैं आप के माता-पिता को अवश्य शरण में लूंगा तथा पार करके
ही दम लूंगा। आप सत्य लोक जाओ। यह चिन्ता छोड़ो। परमेश्वर कबीर जी के
आश्वासन के पश्चात् भक्त सुदर्शन जी सत्य साधना करके सत्यलोक को गया।
पूर्ण मोक्ष प्राप्त किया।
भक्त सुदर्शन बाल्मीकि के माता-पिता वाले जीवों को कलयुग में मानव
शरीर प्राप्त हुआ।
भारत वर्ष के काशी शहर में सुदर्शन के पिता वाले जीव ने एक
ब्राह्मण के घर जन्म लिया तथा गौरीशंकर नाम रखा गया तथा सुदर्शन जी की
माता वाले जीव ने भी एक ब्राह्मण के घर कन्या रूप में जन्म लिया तथा सरस्वती
नाम रखा। युवा होने पर दोनों का विवाह हुआ। गौरी शंकर ब्राह्मण भगवान शिव
का उपासक था तथा शिव पुराण की कथा करके भगवान शिव की महिमा का
गुणगान किया करता। गौरीशंकर निर्लोभी था। कथा करने से जो धन प्राप्त होता
था उसे धर्म में ही लगाया करता था। जो व्यक्ति कथा कराते थे तथा सुनते थे
सर्व गौरी शंकर ब्राह्मण के त्याग की प्रशंसा करते थे।
जिस कारण से पूरी काशी में गौरी शंकर की प्रसिद्धी हो रही थी। अन्य
स्वार्थी ब्राह्मणों का कथा करके धन इकत्रित करने का धंधा बन्द हो गया। इस
कारण से वे ब्राह्मण उस गौरीशंकर ब्राह्मण से ईष्र्या रखते थे। इस बात का पता
मुसलमानों को लगा कि एक गौरीशंकर ब्राह्मण काशी में हिन्दुधर्म के प्रचार को
जोर-शोर से कर रहा है। इसको किस तरह बन्द करें। मुसलमानों को पता चला
कि काशी के सर्व ब्राह्मण गौरीशंकर से ईष्र्या रखते हैं। इस बात का लाभ
मुसलमानों ने उठाया। गौरीशंकर व सरस्वती के घर के अन्दर अपना पानी
छिड़क दिया। अपना झूठा पानी उनके मुख पर लगा दिया। कपड़ों पर भी
छिड़क दिया तथा आवाज लगा दी कि गौरीशंकर तथा सरस्वती मुसलमान बन
गए हैं। पुरूष का नाम नूरअली उर्फ नीरू तथा स्त्राी का नाम नियामत उर्फ नीमा
रखा। अन्य स्वार्थी ब्राह्मणों को पता चला तो उनका दाँव लग गया। उन्होंने
तुरन्त ही ब्राह्मणों की पंचायत बुलाई तथा फैसला कर दिया कि गौरीशंकर तथा
सरस्वती मुसलमान बन गए हैं अब इनका ब्राह्मण समाज से कोई नाता नहीं
रहा। इनका गंगा में स्नान करने, मन्दिर में जाने तथा हिन्दु ग्रन्थों को पढ़ने पर
प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
गौरीशंकर (नीरू) जी कुछ दिन तो बहुत परेशान रहे। जो कथा करके धन
आता था उसी से घर का निर्वाह चलता था। उसके बन्द होने से रोटी के भी लाले
पड़ गए। नीरू ने विचार करके अपने निर्वाह के लिए कपड़ा बुनने का कार्य
प्रारम्भ किया। जिस कारण से जुलाहा कहलाया। कपड़ा बुनने से जो मजदूरी
मिलती थी उसे अपना तथा अपनी पत्नी का पेट पालता था। जिस समय धन
अधिक आ जाता तो उसको धर्म में लगा देता था। विवाह को कई वर्ष बीत गए
थे। उनको कोई सन्तान नहीं हुई। दोनों पति-पत्नी ने बच्चे होने के लिए बहुत
अनुष्ठान किए। साधु सन्तों का आशीर्वाद भी लिया परन्तु कोई सन्तान नहीं हुई।
हिन्दुओं द्वारा उन दोनों का गंगा नदी में स्नान करना बन्द कर दिया गया था।
उनके निवास स्थान से लगभग चार कि.मी. दूर एक लहर तारा नामक सरोवर
था जिस में गंगा नदी का ही जल लहरों के द्वारा नीची पटरी के ऊपर से उछल
कर आता था। इसलिए उस सरोवर का नाम लहरतारा पड़ा। उस तालाब में
बड़े-2 कमल के फूल उगे हुए थे। मुसलमानों ने गौरीशंकर का नाम नूर अली
रखा जो उर्फ नाम से नीरू कहलाया तथा पत्नी का नाम नियामत रखा जो उर्फ
नाम से नीमा कहलाई। नीरू-नीमा भले ही मुसलमान बन गए थे परन्तु अपने
हृदय से साधना भगवान शंकर जी की ही करते थे तथा प्रतिदिन सूर्योदय से पूर्व
लहरतारा तालाब में स्नान करने जाते थे।
ज्येष्ठ मास की शुक्ल पूर्णमासी विक्रमी संवत् 1455 (सन् 1398) सोमवार
को भी ब्रह्म मुहूर्त (ब्रह्म महूर्त का समय सूर्योदय से लगभग डेढ़ घण्टा पहले होता
है) में स्नान करने के लिए जा रहे थे। नीमा रास्ते में भगवान शंकर से प्रार्थना
कर रही थी कि हे दीनानाथ! आप अपने दासों को भी एक बच्चा-बालक दे दो
आप के घर में क्या कमी है प्रभु! हमारा भी जीवन सफल हो जाएगा। दुनिया के
व्यंग्य सुन-2 कर आत्मा दुःखी हो जाती है। मुझ पापिन से ऐसी कौन सी गलती
किस जन्म में हुई है जिस कारण मुझे बच्चे का मुख देखने को तरसना पड़ रहा
है। हमारे पापों को क्षमा करो प्रभु! हमें भी एक बालक दे दो।
यह कह कर नीमा फूट-2 कर रोने लगी तब नीरू ने धैर्य दिलाते हुए कहा हे
नीमा! हमारे भाग्य में सन्तान नहीं है यदि भाग्य में सन्तान होती तो प्रभु शिव
अवश्य प्रदान कर देते। आप रो-2 कर आँखे खराब कर लोगी। बालक भाग्य में
है नहीं जो वृद्ध अवस्था में उंगली पकड़ लेता। आप मत रोओ आप का बार-2
रोना मेरे से देखा नहीं जाता। यह कह कर नीरू की आँखे भी भर आई। इसी
तरह प्रभु की चर्चा व बालक प्राप्ति की याचना करते हुए उसी लहरतारा तालाब
पर पहुँच गए। प्रथम नीमा ने प्रवेश किया, पश्चात् नीरू ने स्नान करने को
तालाब में प्रवेश किया। सुबह का अंधेरा शीघ्र ही उजाले में बदल जाता है। जिस
समय नीमा ने स्नान किया था उस समय तक तो अंधेरा था। जब कपड़े बदल
कर पुनः तालाब पर उस कपड़े को धोने के लिए गई, जिसे पहन कर स्नान
किया था, उस समय नीरू तालाब में प्रवेश करके गोते लगा-2 कर मल मल
कर स्नान कर रहा था।
नीमा की दृष्टि एक कमल के फूल पर पड़ी जिस पर कोई वस्तु हिल रही
थी। प्रथम नीमा ने जाना कोई सर्प है जो कमल के फूल पर बैठा अपने फन को
उठा कर हिला रहा है। उसने सोचा कहीं यह सर्प मेरे पति को न डस ले नीमा ने
उसको ध्यानपूर्वक देखा वह सर्प नहीं है कोई बालक था। जिसने एक पैर अपने
मुख में ले रखा था तथा दूसरे को हिला रहा था।
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(परमेश्वर कबीर जी का शिशु रूप में लहरतारा तालाब में अवतरण)
नीमा ने अपने पति से ऊँची आवाज में कहा देखिये जी! एक छोटा बच्चा
कमल के फूल पर लेटा है। वह जल में डूब न जाए। नीरू स्नान करते-2 उस की
ओर न देख कर बोला नीमा! बच्चों की चाह ने तूझे पागल बना दिया है। अब
तूझे जल में भी बच्चे दिखाई देने लगे हैं। नीमा ने अधिक तेज आवाज में कहा मैं
सच कह रही हूँ, देखो सचमुच एक बच्चा कमल के फूल पर, वह रहा, देखो!
देखो--- नीमा की आवाज में परिवर्तन व अधिक कसक देखकर नीरू ने उस
ओर देखा जिस ओर नीमा हाथ से संकेत कर रही थी। कमल के फूल पर
नवजात शिशु को देखकर नीरू ने आव देखा न ताव झपट कर कमल के फूल
सहित बच्चा उठाकर अपनी पत्नी को दे दिया।
नीमा ने परमेश्वर कबीर जी को सीने से लगाया, मुख चूमा, पुत्रावत् प्यार
किया जिस परमेश्वर की खोज में ऋषि-मुनियों ने जीवन भर शास्त्राविधि विरूद्ध
साधना की उन्हें नहीं मिला। वही परमेश्वर भक्तमति नीमा की गोद में खेल रहा
था। जिस शान्तिदायक परमेश्वर को आन्नद की प्राप्ति के लिए प्राप्त करने
की इच्छा से साधना की जाती है वही परमेश्वर नीमा के हाथों में सीने से लगा लिया।
उस समय जो शीतलता व आनन्द का अनुभव भक्तमति नीमा को हो रहा
होगा उस की कल्पना ही की जा सकती है। नीरू स्नान करके जल से बाहर
आया। नीरू ने सोचा यदि हम इस बच्चे को नगर में ले जाऐंगे तो शहर वासी हम
पर शक करेंगे सोचेंगे कि ये किसी के बच्चे को चुरा कर लाए हैं। कहीं हमें नगर
से निकाल दें। इस डर से नीरू ने अपनी पत्नी से कहा नीमा! इस बच्चे को यहीं
छोड़ दे इसी में अपना हित है। नीमा बोली हे पति देव! यह भगवान शंकर का
दिया खिलौना है। इस बच्चे ने पता नहीं मुझ पर क्या जादू कर दिया है कि मेरा
मन इस बच्चे के वश हो गया है। मैं इस बच्चे को नहीं त्याग सकती। नीरू ने
नीमा को अपने मन की बात से अवगत कराया। बताया कि यह बच्चा नगर
वासी हम से छीन लेगें, पूछेंगे कहाँ से लाए हो? हम कहेंगे लहरतारा तालाब में
कमल के फूल पर मिला है। हमारी बात पर कोई भी विश्वास नहीं करेगा। हो
सकता है वे हमें नगर से भी निकाल दें। तब नीमा ने कहा मैं इस बालक के साथ
देश निकाला भी स्वीकार कर लूंगी। परन्तु इस बच्चे को नहीं त्याग सकती। मैं
अपनी मृत्यु को भी स्वीकार कर लूंगी। परन्तु इस बच्चे से भिन्न नहीं रह सकूंगी।
नीमा का हठ देख कर नीरू को क्रोध आ गया तथा अपने हाथ को थप्पड़
मारने की स्थिति में उठा कर आँखों में आंसू भर कर करूणाभरी आवाज में बोला
नीमा मैंने आज तक तेरी किसी भी बात को नहीं ठुकराया। यह जान कर कि
हमारे कोई बच्चा नहीं है मैंने तुझे पति तथा पिता दोनों का प्यार दिया है। तू मेरे
नम्र स्वभाव का अनुचित लाभ उठा रही है। आज मेरी स्थिति को न समझ कर
अपने हठी स्वभाव से मुझे कष्ट दे रही है। विवाहित जीवन में नीरू ने प्रथम बार
अपनी पत्नी की औेर थप्पड़ मारने के लिए हाथ उठाया था तथा कहा कि या तो
इस बच्चे को यहीं रख दे वरना आज मैं तेरी बहुत पिटाई करूंगा।
उसी समय नीमा के सीने से चिपके बालक रूपधारी परमेश्वर बोले हे
नीरू! आप मुझे अपने घर ले चलो आप पर कोई आपत्ति नहीं आएगी। मैं
सतलोक से चलकर तुम्हारे हित के लिए यहाँ आया हूँ। नवजात शिशु के मुख से
उपरोक्त वचन सुनकर नीरू (नूर अली) डर गया कहीं यह कोई देव या पितर
या कोई सिद्ध पुरूष न हो और मुझे शाप न दे दे। इस डर से नीरू कुछ नहीं
बोला घर की ओर चल पड़ा। पीछे-2 उसकी पत्नी परमेश्वर को प्यार करती हुई
चल पड़ी।
उपरोक्त घटना का प्रत्यक्ष दृष्टा:-
प्रतिदिन की तरह ज्येष्ठ मास की पूर्णमासी विक्रमी संवत् 1455 (1398 ई.)
सोमवार को एक अष्टानन्द नामक ऋषि, जो स्वामी रामानन्द ऋषि जी के शिष्य
थे काशी शहर से बाहर बने लहरतारा तालाब के स्वच्छ जल में स्नान करने के
लिए गए। ब्रह्म महूर्त का समय था (ब्रह्म मुहूर्त का समय सूर्योदय से लगभग डेढ़
घण्टा पूर्व का होता है) ऋषि अष्टानन्द जी ने लहरतारा तालाब में स्नान किया।
वे प्रतिदिन वहीं बैठ कर कुछ समय अपनी पाठ पूजा किया करते थे। ऋषि
अष्टानन्द जी ध्यान मग्न होने की चेष्टा कर ही रहे थे उसी समय उन्होंने देखा
कि आकाश से एक प्रकाश पुंज नीचे की ओर आता दिखाई दिया। वह इतना
तेज प्रकाश था उसे ऋषि जी की चर्म दृष्टि सहन नहीं कर सकी। जिस प्रकार
आँखे सूर्य की रोशनी को सहन नहीं कर पाती। सूर्य के प्रकाश को देखने के
पश्चात् आँखे बन्द करने पर सूर्य का आकार दिखाई देता है उसमें प्रकाश
अधिक नहीं होता।
इसी प्रकार प्रथम बार परमेश्वर के प्रकाश को देखने से ऋषि जी की आँखे
बन्द हो गई बन्द आँखों में शिशु को देख कर फिर से आँखे खोली। ऋषि
अष्टानन्द जी ने देखा कि वह प्रकाश लहरतारा तालाब पर उतर गया। जिससे
पूरा सरोवर प्रकाश मान हो गया तथा देखते ही देखते वह प्रकाश जलाशय के
एक कोने में सिमट गया। ऋषि अष्टानन्द जी ने सोचा यह कैसा दृश्य मैंने देखा।
यह मेरी भक्ति की उपलब्धि है या मेरा दृष्टिदोष है। इस के विषय में गुरूदेव,
स्वामी रामानन्द जी से पूछूंगा। यह विचार करके ऋषि अष्टानन्द जी अपनी शेष
साधना को छोड़ कर अपने पूज्य गुरूदेव के पास गए। स्वामी रामानन्द जी को
सर्व घटनाक्रम बताकर पूछा हे गुरूदेव! यह मेरी भक्ति की उपलब्धि है या मेरी
भ्रमणा है।
मैंने प्रकाश आकाश से नीचे की ओर आते देखा जिसे मेरी आँखे सहन
नहीं कर सकी। आँखे बन्द हुई तो नवजात शिशु दिखाई दिया। पुनः आँखें
खोली तो उस प्रकाश से पूरा जलाशय ही जगमगा गया, पश्चात् वह प्रकाश उस
तालाब के एक कोने में सिमट गया। मैं आप से कारण जानने की इच्छा से अपनी
साधना बीच में ही छोड़ कर आया हूँ। कृप्या मेरी शंका का समाधान कीजिए।
ऋषि रामानन्द स्वामी जी ने अपने शिष्य अष्टानन्द से कहा हे ब्राह्मण! यह
न तो तेरी भक्ति की उपलब्धि है न आप का दृष्टिदोष ही है। इस प्रकार की
घटनाऐं उस समय होती हैं। जिस समय ऊपर के लोकों से कोई देव पृथ्वी पर
अवतार धारण करने के लिए आते हैं। वह किसी स्त्राी के गर्भ में निवास करता है।
फिर बालक रूप धारण करके नर लीला करके अपना अपेक्षित कार्य पूर्ण करता
है। कोई देव ऊपर के लोकों से आया है। वह काशी नगर में किसी के घर जन्म
लेकर अपना प्रारब्ध पूरा करेगा। उपरोक्त वचनों द्वारा ऋषि रामानन्द स्वामी
जी ने अपने शिष्य अष्टानन्द की शंका का समाधान किया। उन ऋषियों की यही
धारणा रही है कि सर्व अवतार गण माता के गर्भ से ही जन्म लेते हैं।
बालक को लेकर नीरू तथा नीमा अपने घर जुलाहा मौहल्ला (कालोनी) में
आए। जिस भी नर व नारी ने नवजात शिशु रूप में परमेश्वर कबीर जी को देखा
वह देखता ही रह गया। परमेश्वर का शरीर अति सुन्दर था। आँख जैसे कमल
का फूल हो, घुंघराले बाल, लम्बे हाथ। लम्बी-2 अंगुलियाँ शरीर से मानो नूर
झलक रहा हो। जैसे अंग्रेज गोरे होते हैं इनसे भी अधिक गोरा शरीर परमेश्वर
का था। अग्रेंज सफेद होते हैं परमेश्वर कबीर जी का उन से भी अधिक सफेद
वर्ण का शरीर था। पूरी काशी नगरी में ऐसा अद्धभुत बालक नहीं था। जो भी
देखता वहीं अन्य को बताता कि नूर अली को एक बालक तालाब पर मिला है
आज ही उत्पन्न हुआ शिशु है। डर के मारे लोक लाज के कारण किसी विधवा ने
डाला होगा। बालक को देखने के पश्चात् उसके चेहरे से दृष्टि हटाने को दिल
नहीं करता, आत्मा अपने आप खिंची चली जाती है। पता नहीं कैसा जादू है
बालक के मुख पर? पूरी काशी परमेश्वर के बालक रूप को देखने को उमड़
पड़ी। स्त्राी-पुरूष झुण्ड के झुण्ड बना कर मंगल गान गाते हुए, नीरू के घर बच्चे
को देखने आए।
बच्चे (कबीर परमेश्वर) को देखकर कोई कह रहा था, यह बालक तो कोई
देवता का अवतार है, कोई कह रहा था। यह तो साक्षात् विष्णु जी ही आए लगते
हैं। कोई कह रहा था यह भगवान शिव ही अपनी काशी नगरी को कृतार्थ करने
को उत्पन्न हुए हैं। कोई कह रहा था। यह तो किन्नर का अवतार है, कोई कह
रहा था। यह पितर नगरी से आया है। यह सर्व वार्ता सुनकर नीमा अप्रसन्न हो
कर कहती थी कि मेरे बच्चे के विषय में कुछ मत कहो। हे अल्लाह! मेरे बच्चे की
इनकी नजर से रक्षा करना। तुमने कभी बच्चा देखा भी है कि नहीं। ऐसे समूह के
समूह मेरे बालक को देखने आ रहे हैं। आने वाले स्त्राी-पुरूष बोले हे नीमा! हमने
बालक तो बहुत देखे हैं परन्तु आप के बालक जैसा नहीं देखा। इसीलिए हम इसे
देखने आए हैं। ऊपर अपने-2 लोकों से श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री
शिवजी भी झांक कर देखने लगे। काशी के वासियों के मुख से अपने में से (श्री
ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा शिव में से) एक यह बालक होने की बात सुनकर बोले कि
यह बालक तो किसी अन्य लोक से आया है। इस के मूल स्थान से हम भी
अपरिचित हैं परन्तु बहुत शक्ति युक्त कोई सिद्ध पुरूष होगा।
‘‘शिशु कबीर परमेश्वर का नामांकन’’
नीरू (नूर अली) तथा नीमा पहले हिन्दु ब्राह्मण-ब्राह्मणी थे। इस कारण
लालच वश ब्राह्मण लड़के का नाम रखने आए। उसी समय काजी मुसलमान
अपनी पुस्तक कुरान शरीफ को लेकर लड़के का नाम रखने के लिए आ गए।
उस समय दिल्ली में मुगल बादशाहों का शासन था जो पूरे भारतवर्ष पर शासन
करते थे। जिस कारण हिन्दु समाज मुसलमानों से दबता था। काजियों ने कहा
लड़के का नाम करण हम मुसलमान विधि से करेंगे अब ये मुसलमान हो चुके हैं।
यह कह कर काजियों में मुख्य काजी ने कुरान शरीफ पुस्तक को कहीं से खोला।
उस पृष्ठ पर प्रथम पंक्ति में प्रथम नाम ‘‘कबीरन्’’ लिखा था। काजियों ने सोचा
‘‘कबीर’’ नाम का अर्थ बड़ा होता है। इस छोटे जाति (जुलाहे अर्थात् धाणक) के
बालक का नाम कबीर रखना शोभा नहीं देगा। यह तो उच्च घरानों के बच्चों के
नाम रखने योग्य है। शिशु रूपधारी परमेश्वर काजियों के मन के दोष को जानते
थे। काजियों ने पुनः पवित्रा कुरान शरीफ को नाम रखने के उद्देश्य से खोला।
उन दोनों पृष्ठों पर कबीर-कबीर-कबीर अक्षर लिखे थे अन्य अक्षर नहीं था।
काजियोंने फिर कुरान शरीफ को खोला उन पृष्ठों पर भी कबीर-कबीर-कबीर
अक्षर ही लिखा था। काजियों ने पूरी कुरान का निरीक्षण किया तो उनके द्वारा
लाई गई कुरान शरीफ में सर्व अक्षर कबीर-कबीर-कबीर-कबीर हो गए काजी
बोले इस बालक ने कोई जादू मन्त्रा करके हमारी कुरान शरीफ को ही बदल
डाला। तब कबीर परमेश्वर शिशु रूप में बोले हे काशी के काजियों। मैं कबीर
अल्लाह अर्थात् अल्लाहुअकबर, हूँ। मेरा नाम ‘‘कबीर’’ ही रखो। काजियों ने
अपने साथ लाई कुरान को वहीं पटक दिया तथा चले गए। बोले इस बच्चे में
कोई प्रेत आत्मा बोल रही है।
‘‘शिशु कबीर देव द्वारा कंवारी गाय का दूध पीना’’
बालक कबीर को दूध पिलाने की कोशिश नीमा ने की तो परमेश्वर ने मुख
बन्द कर लिया। सर्व प्रयत्न करने पर भी नीमा तथा नीरू बालक को दूध पिलाने
में असफल रहे। 25 दिन जब बालक के निराहार बीत गए तो माता-पिता अति
चिन्तित हो गए। 24 दिन से नीमा तो रो-2 कर विलाप कर रही थी। सोच रही थी
यह बच्चा कुछ भी नहीं खा रहा है। यह मरेगा, मेरे बेटे को किसी की नजर लगी
है। 24 दिन से लगातार नजर उतारने की विधि भिन्न-भिन्न स्त्राी-पुरूषों द्वारा
बताई प्रयोग करके थक गई। कोई लाभ नहीं हुआ। पच्चीसवां दिन उदय हुआ।
माता नीमा रात्रि भर जागती रही तथा रोती रही कि पता नहीं यह बच्चा कब मर
जाएगा। मैं भी साथ ही फांसी पर लटक जाऊंगी। मैं इस बच्चे के बिना जीवित
नहीं रह सकती। बालक कबीर का शरीर पूर्ण रूप से स्वस्थ था तथा ऐसे लग
रहा था जैसे बच्चा प्रतिदिन एक किलो ग्राम (एक सेर) दूध पीता हो। परन्तु
नीमा को डर था कि बिना कुछ खाए-पिए यह बालक जीवित रह ही नहीं सकता।
यह कभी भी मृत्यु को प्राप्त हो सकता है। यह सोचकर फूट-2 कर रो रही थी।
भगवान शंकर के साथ-साथ निराकार प्रभु की भी उपासना तथा उससे की गई
प्रार्थना जब व्यर्थ रही तो अति व्याकुल होकर रोने लगी।
25वें दिन नीरू ने सोचा कि हमने मुसलमान काजी-मुल्लाओं के बताए
अनुसार तो सर्व क्रिया कर ली है। परन्तु बच्चा दूध नहीं पी रहा। उस समय
स्वामी रामानन्द जी प्रसिद्ध पंडित थे। उनके पास जा कर अपनी समस्या सुनाई
कि मुझे जंगल में एक पुत्रा प्राप्त हुआ था। {नीरू को कमल के फूल पर जल में
पुत्रा प्राप्त हुआ था। परन्तु जिस से भी यह कहता कि कमल के पुष्प पर पुत्र प्राप्त हुआ है।
हुआ था। सर्व अस्वीकार करते थे, कहते थे कि यह कैसे सम्भव हो सकता है?
इसी डर से नीरू ने स्वामी रामानन्द जी से कहा कि उद्यान में मुझे एक नवजात
शिशु प्राप्त हुआ है।} वह 25 दिन से कुछ भी नहीं खा-पी रहा है। हे स्वामी कुछ
विधि बताओ? स्वामी रामानन्द जी ने कहा कि आप पूर्व जन्म में भी ब्राह्मण थे।
उस समय आप से भगवान की भक्ति में कोई त्राुटि हुई थी जिस कारण से आप
जुलाहा बने हो। नीरू ने कहा कि हे स्वामी! वह तो जैसा कर्म किया था, उसका
फल तो मुझे मिलना ही था। अब मैं संकट के समय आप के पास आया हूँ। ऐसी
कृपा करो बालक दूध पी ले। स्वामी रामानन्द जी ने कहा कि एक कंवारी गाय
(बछिया) ले आना जिसको बैल ने छुआ न हो। उसको अपने बालक के पास
खड़ा कर देना, वह कंवारी गाय दूध देगी, उस दूध को बालक पी लेगा।
नीरू ने मन ही मन में सोचा कि स्वामी जी ने मेरे साथ मजाक किया है।
कंवारी गाय कैसे दूध दे सकती है। वह दुःखी मन से वापिस आकर अपनी
झोंपड़ी में बैठकर रोने लगा।
भगवान शिव, एक साधु का रूप बना कर नीरू की झांेपड़ी के सामने आ
खड़े हुए तथा नीमा से रोने का कारण जानना चाहा। नीमा रोती रही हिचकियाँ
लेती रही। साधु रूप में खड़े भगवान शिव जी के अति आग्रह करने पर नीमा
रोती-2 कहने लगी।
हे महात्मा! मेरे दुःख से परिचित होकर आप भी दुःखी हो जाओगे। साधु
वेशधारी शिव भगवान बोले हे माई! कहते है अपने मन का दुःख दूसरे के समक्ष
कहने से मन हल्का हो जाता है। हो सकता है आप के कष्ट को निवारण करने की
विधि भी प्राप्त हो जाए। आँखों में आंसू जिह्वा लड़खड़ाते हुए गहरे साँस लेते हुए
नीमा ने बताया हे विप्र जी! हम निःसन्तान थे। पच्चीस दिन पूर्व हम दोनों
प्रतिदिन की तरह काशी में लहरतारा तालाब पर स्नान करने गए थे। उस दिन
ज्येष्ठ मास की पूर्णमासी की सुबह थी। रास्ते में मैंने अपने इष्ट भगवान शंकर से
पुत्रा प्राप्ति की हृदय से प्रार्थना की थी मेरी पुकार सुनकर दीनदयाल भगवान
शंकर जी ने उसी दिन एक बालक लहरतारा तालाब में कमल के फूल पर हमें
दिया। बच्चे को प्राप्त करके हमारे हर्ष का कोई ठिकाना नहीं रहा। यह हर्ष
अधिक समय तक नहीं रहा। इस बच्चे ने दूध नहीं पीया। सर्व प्रयत्न करके हम
थक चुके हैं। आज इस बच्चे को पच्चीसवां दिन है कुछ भी आहार नहीं किया है।
यह बालक मरेगा। इसके साथ ही मैं आत्महत्या करूंगी। मैं इसकी मृत्यु की
प्रतीक्षा कर रही हूँ। सारी रात्रि बैठ कर तथा रो-2 व्यतीत की है। मैं भगवान
शंकर से प्रार्थना कर रही हूँ कि हे भगवन्! इससे अच्छा तो यह बालक न देते। अब
इस बच्चे में इतनी ममता हो गई है कि मैं इसके बिना जीवित नहीं रह सकूंगी।
नीमा के मुख से सर्वकथा सुनकर साधु रूपधारी भगवान शंकर ने कहा
आप का बालक मुझे दिखाइए। नीमा ने बालक को पालने से उठाकर महात्मा
जी के समक्ष प्रस्तुत किया। नीमा ने बालक को साधु के चरणों मे डालना चाहा
कि बच्चे के जीवन की रक्षा हो सके। बालक पृथ्वी पर न गिर कर ऊपर उठ
गया और साधु वेश धारी शिव के सिर के सामान्तर हवा में ठहर गया। नीमा ने
सोचा कि यह चमत्कार इस साधु ने किया है, मेरे बच्चे को हवा में स्थिर कर
दिया। साधु ने अपनी बाहें फैलाकर बच्चे को लेना चाहा। उसी समय बालक
स्वयं साधु रूपधारी शिव के हाथों में आ गया।
दोनों प्रभुओं की आपस में दृष्टि मिली। भगवान शंकर जी ने शिशु रूप
कबीर जी को अपने हाथों में ग्रहण किया तथा मस्तिष्क की रेखाऐं व हस्त रेखाऐं
देख कर बोले नीमा! आप के बेटे की लम्बी आयु है यह मरने वाला नहीं है। देख
कितना स्वस्थ है। कमल जैसा चेहरा खिला है। नीमा ने कहा हे महात्मा! बनावटी
सांत्वना से मुझे सन्तोष होने वाला नहीं है। बच्चा दूध पीएगा तो मुझे सुख की
सांस आएगी। पच्चीस दिन के बालक का रूप धारण किए परमेश्वर कबीर जी ने
भगवान शिव जी से कहा हे भगवन्! आप इन्हें कहो एक कंवारी गाय लाऐं। आप
उस कंवारी गाय पर अपना आशीर्वाद भरा हस्त रखना, वह दूध देना प्रारम्भ कर
देगी। मैं उस कंवारी गाय का दूध पीऊँगा। वह गाय आजीवन बिना ब्याऐ
(अर्थात् कंवारी रह कर ही) दूध दिया करेगी उस दूध से मेरी परवरिश होगी।
परमेश्वर कबीर जी तथा भगवान शंकर (शिव) जी की सात बार चर्चा हुई।
शिवजी ने नीमा से कहा आप का पति कहाँ है? नीमा ने अपने पति को
पुकारा वह भीगी आँखों से उपस्थित हुआ तथा साधु को प्रणाम किया। साधु रूप
में शिव ने कहा नीरू! आप एक कंवारी गाय लाओं वह दूध देगी। उस दूध को
यह बालक पीएगा। नीरू कंवारी गाय ले आया तथा साथ में कुम्हार के घर से
एक ताजा छोटा घड़ा (चार कि.ग्रा. क्षमता का मिट्टी का पात्रा) भी ले आया।
परमेश्वर कबीर जी के आदेशानुसार साधु रूपधारी शिव जी ने उस कंवारी गाय
की पीठ पर हाथ मारा जैसे थपकी लगाते हैं। गऊ माता के थन लम्बे-2 हो गए
तथा थनों से दूध की धार बह चली। नीरू को पहले ही वह पात्रा थनों के नीचे
रखने का आदेश दे रखा था। दूध का पात्रा भरते ही थनों से दूध निकलना बन्द
हो गया। वह दूध शिशु रूपधारी कबीर परमेश्वर जी ने पीया। नीरू नीमा ने साधु
रूपधारी भगवान शिव के चरण लिए तथा कहा आप तो साक्षात् भगवान शिव के
रूप हो। आपको भगवान शिव ने ही हमारी पुकार सुनकर भेजा है। हम निर्धन
व्यक्ति आपको क्या दक्षिणा दे सकते हैं? हे विप्र! 24 दिनों से हमने कोई कपड़ा
भी नहीं बुना है। साधु रूपधारी भगवान शंकर बोले! साधु भूखा भाव का, धन का
भूखा नाहीं। जो है भूखा धन का, वह तो साधू नाहीं। यह कह कर विप्र रूपधारी
शिवजी वहां से चले गए।
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